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भटकती आत्मा भाग - 31




भटकती आत्मा भाग –31

बियाबान जंगल ! लगता था इसका कोई अंत ही नहीं है l मनकू माँझी दो दिनों से इन जंगलों में भटक रहा था l कभी इन जंगलों में तो आया नहीं था वह। नया अपरिचित वन प्रान्त ! कभी-कभी जंगल के बीच बनी पगडंडी पर चलता हुआ वह ऐसे स्थान पर पहुंच जाता था,जहां से उसको दो-तीन पगडंडियाँ भिन्न-भिन्न दिशाओं में जाती हुईं दिखाई पड़ती थीं l किसी आदमी के नहीं मिलने पर वह पूछता भी तो किससे ? ऐसे में वह उनमें से कोई एक पगडंडी चुन लेता फिर उसी पर चलने लगता l भूख लगती तो जंगली फलों से अपनी भूख मिटाता,रात हो जाती तो किसी सुरक्षित स्थान पर लेट जाता | सवेरा होते ही वह पुनः अनिश्चित मार्ग पर चल पड़ता l इस प्रकार चलते चलते वह थक गया l शरीर का अंग-अंग टूटने लगा | मार्ग पर चलते हुए उस का सिर इस प्रकार चकराने लगता था कि वह लड़खड़ा जाता था कभी-कभी तो वह गिरते-गिरते संभल जाता था | लेकिन पैर रुकना नहीं जानते थे। परन्तु कितनी देर ! उसके पैर अब जवाब देने लगे थे,उसका शरीर भी अशक्त होने लगा। शरीर आंतरिक ताप के आवश्यकता से अधिक बढ़ जाने पर जलने लगा,आंखें स्वत: ही बंद होती चली गईं,फिर वह गिर पड़ा,उठ नहीं सका,चेतना लुप्त हो गई उसकी 
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प्रातः कालीन रक्ताभ किरणों ने गुदगुदा कर मनकू माँझी को उठा दिया। उसने चारों तरफ नजर दौड़ाई। जंगल का शांत वातावरण उसको अच्छा लग रहा था। हरीतिमा की चादर ताने ऊंचे ऊंचे वृक्ष और जंगली पौधे,तथा उससे लिपटी लतिकायें,सतरंगी दंत पंक्तियों के समान रंग-बिरंगे जंगली पुष्प से मुस्कुराहट बिखेर रही थी। उसकी खुशबू मन प्राण को संजीवनी स्फूर्ति प्रदान करती थी। पक्षी गण अपने कलरव से शांत वातावरण को मुखरता प्रदान करने का प्रयास कर रहे थे।
  मनकू माँझी अपने को हल्का महसूस कर रहा था। शरीर का उत्ताप सामान्य हो चला था। आश्चर्यचकित सा वह उठ बैठा, क्योंकि कुछ लोगों के वार्तालाप के अस्पष्ट शब्द उसके कर्ण रन्ध्रों में प्रवेश कर रहे थे। जन शून्य प्रांत में यह लोग कैसे आ गए ? उसके कौतूहल का यही कारण था | सहसा एक भीम काय पुरुष जो साक्षात रावण के वंश का लगता था, उसके निकट पहुंचकर उद्दंडता पूर्वक अट्टहास करने लगा | मनकू माँझी घबड़ा गया | वह भयभीत तो नहीं हुआ,परन्तु इस अप्रत्याशित घटना के लिए तैयार भी नहीं था । उसकी हालत भी ठीक नहीं थी,भूख और निरंतर चलते रहने की थकान ने उसके शरीर से मानो रक्त निचोड़ लिया था। शरीर में ताकत ही नहीं महसूस होता था।
   "अरे हनुमान ! तुम लंका से भागकर यहां छुपे बैठे हो ! मैं तुम्हें कहां-कहां खोजता हुआ यहां तक पहुंचा हूं !आखिर रावण से छिपकर जा भी कहां सकते हो, बच्चू! बोलो क्यों तुमने लंका में आग लगाई"! - 
   क्रूरता पूर्वक चिल्लाया वह पुरुष |
   "मैं ....मैं ....किसी लंका में नहीं गया कभी। भाई फिर लंका जलाने का प्रश्न ही नहीं उठता है" -  मनकू माँझी घबड़ा गया l
   "अभी तक तो लोग जानते थे कि रावण ही झूठ बोलता है,फिर तुम मुझसे झूठ बोलने की प्रतिद्वंदिता करने का दुस्साहस कैसे करने लगे"?  -  क्रूरता पूर्वक बोला वह |
  "नहीं मैं किसी रावण को नहीं जानता | मैंने तो आज तक तुम्हें देखा भी नहीं है, फिर यह आरोप मेरे प्रति उचित नहीं"|
  -   मनकू ने कहा |
  "हां - हां ! तुम किसी रावण को नहीं जानते ! तुम ने लंका नहीं देखा है ! दुष्ट ! मक्कार ! जालिम ! मैं तुम्हें वह सजा दूंगा कि राम का रूह भी कांप उठेगा ! ऐसे ऐसे बंदर को में उंगली पर नचाता हूं l मैं जरा शराब पीकर खर्राटे क्या लेने लगा, कि तुम चोर के समान लंका जला कर चल दिए ! सोचा था शायद,रावण खोज नहीं पाएगा। अरे दुष्ट ! क्या तू जानता नहीं कि रावण से बचकर एक मक्खी भी तीनों लोगों में कहीं भी छुपकर नहीं बैठ सकती ! मैंने तुम्हारे राजा राम की सुंदर पत्नी का ही तो अपहरण किया है,कोई पाप तो नहीं किया ? स्त्री उसी की होती है जिसके पास बाहुबल हो,फिर अगर राम में बाहुबल है,तो मुझ से टक्कर ले ! इस तरह तुम्हारे जैसे बंदर को भेजने की क्या जरूरत थी"!  -  गुर्राते हुए उस पुरुष ने कहा l
   "आपको गलतफहमी हुई है, मैं हनुमान नहीं अच्छा खासा पुरुष हूं"| -  मनकू ने समझाया |
  "वेश बदलने में तुम बंदर चतुर होते हो, तभी तो मच्छर बनकर लंका में तुमने प्रवेश किया ! विकट रूप धारण कर सुरसा को छकाया ! और फिर चोर जैसा बनकर लंका को जला डाला ! और अब मनुष्य बन कर यहां छुपे बैठे हो! नहीं मैं कुछ भी कैफियत सुनने को तैयार नहीं, दंड तुम्हें अवश्य मिलेगा | अरे मागध,सनद, बीरबल सब लोग दौड़ो,बांध दो इस दुष्ट को"।- चिल्लाया वह पुरुष।
  सचमुच में दौड़ते हुए कुछ राक्षस उसके निकट पहुंचे। मनकू माँझी डर गया, वह सोचने लगा - शायद वह जीवित नहीं है, क्या वह सचमुच में मर गया है? भ्रम में पड़ गया वह। लेकिन वह तो जीता जागता बैठा है,सांसे भी चल रही हैं,फिर यह कैसा स्वप्न ? बिना नींद के भी स्वप्न देखा जा सकता है क्या ? फटी फटी आंखों से वह देखता ही रह गया।
  सहसा राम का सौम्य शांत मुखड़ा उसकी दृष्टिपथ में आया। मनकू आश्चर्यचकित सा देखता रह गया। जो भीम काय पुरुष उसके निकट पहले गरज रहा था,अब राम के गले मिल रहा था,और मुस्कुरा रहा था |
  "कहो दोस्त,कैसा रहा मेरा नाटक"? - हंसता हुआ रावण ने कहा |
  मनकू माँझी कुछ भी नहीं समझ पाया,भला वह ऐसे में जवाब क्या देता! खिसियानी हंसी हंस पड़ा मनकू l फिर तथाकथित रावण ने उसको वस्तु स्थिति से अवगत कराया। वे लोग रामलीला दल के सदस्य थे,एक बस्ती में रामलीला करके लौटते हुए इस जंगल में पहुंचे थे,यहां पर भोजन आदि से निवृत्त होकर पुनः गुमला जाना था उन्हें। वहां भी रामलीला का प्रदर्शन करना था। परन्तु उनकी रामलीला में हनुमान का चरित्र निभाने वाला व्यक्ति बीमार पड़ गया था, इसलिए उन्होंने मनकू माँझी को वह चरित्र निभाने के लिए आमंत्रित किया। मनकू घबड़ा गया। बिना कोई पूर्व अभ्यास के वह कैसे कर सकता है यह अभिनय ?
  एक ने समझाया  -   "इसमें घबड़ाने की कोई आवश्यकता नहीं, जहां संवाद की आवश्यकता होगी पीछे से बता दिया जाएगा l ऐसे कोई खास संवाद हनुमान के लिए नहीं है"|
" कितना दिन लगेगा रामलीला में" - मनकू माँझी ने पूछा |
  "मात्र दो दिन, फिर तुम स्वतंत्र होगे, जहां मन करे जा सकते हो"| - एक आदमी ने समझाया l 
मनकू माँझी ने अपनी स्वीकृति दे दी l
  भोजन बन रहा था,मनकू माँझी भी दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर लौट आया, फिर उनके काम में हाथ बंटाने लगा | दो बजे तक भोजन से वे सब निवृत्त हुए, फिर वह दल आगे मार्ग पर शीघ्रता से चल पड़ा। अब मनकू के सामने कोई उलझन नहीं था। भोजन करने के बाद उसके शरीर में पूर्ववत शक्ति लौट आई थी। उसका आगे का मार्ग भी सुगम हो गया था। गुमला से तो वह आंखें मूंदकर भी नेतरहाट पहुंच सकता था।


  क्रमशः 
        




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